Monday 4 April 2016

एक कानून का दम तोड़ना




आरटीई, राइट टू एजुकेशन। सात साल पुराना यह कानून साल-दर-साल दम तोड़ रहा है। अप्रैल-मई में अभिभावक संघ स्कूलों के खिलाफ आंदोलन करते हैं और गर्मियों की छुट्टियां आते-आते आरटीई को लागू करने के लिए चल रहे आंदोलन की भी छुट्टी हो जाती है। अब तो ऐसा लगता है जैसे आरटीई कानून नहीं त्योहार है, जिसे विशेष सीजन में याद किया जाता है। थोड़ी हाय-तौबा होती है और बाद में सब सामान्य।

इस साल भी स्कूलों में नया सत्र शुरू हुआ। तमाम मदों में फीस बढ़ाई गई और पेरेंट्स का गुस्सा फूट पड़ा। अभिभावक संघ ने जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपा कि आरटीई कानूनों का स्कूल पालन नहीं कर रहे और निकल पड़े स्कूलों के खिलाफ। मीडिया का भी साथ मिला। अखबारों में खबरें छपीं। स्कूल यूं बढ़ा रहे फीस। यह गैरकानूनी है। किताबों के नाम पर कमीशनखोरी का खेल, कहां का कायदा है और ब्ला ब्ला...। अप्रैल भर आरटीई, आरटीई ही सुनाई देगा। इसके बाद साल भर सब कहां चले जाते हैं, पता नहीं। उसी सिस्टम को स्वीकार कर लेते हैं, जिसके खिलाफ एक महीने आंदोलन किया और मन में यह जानते भी हैं कि अगले साल फिर यही करना है। तो क्यों, आखिर क्यों। किस देश में जी रहे हैं हम। कैसा लोकतंत्र और कैसा कानून? जिसका सात सालों से पालन तक नहीं कराया जा सका।

मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के कार्यकाल में एमएचआरडी ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम का जो प्रारूप संसद में रखा उसमें तमाम संशोधनों के बाद उसे कानूनी जामा पहनाया गया। छह से पंद्रह साल के बच्चों को निशुल्क शिक्षा का अधिकार मिले। इस अधिनियम के अनुसार सभी प्राईवेट स्कूलों को पहली से आठवीं कक्षा में 25 फीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करनी थी। जब इसमें खामी पाई गई और स्कूलों ने शंका जाहिर की हम किस आधार पर बड़ी कक्षाओं में बच्चों का प्रवेश लेंगे तब इसे संशोधित किया गया कि प्राईवेट स्कूलों को, कानून लागू होने पर सिर्फ पहली कक्षा में ही 25 फीसदी सीटें आरक्षित करनी हैं। एक बैच बनने के बाद यह नियम आगे की कक्षाओं पर साल-दर-साल लागू होगा और आने वाले सालों में प्राईवेट स्कूलों की पहली से आठवी कक्षा में 25 फीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए आरक्षित हो जाएंगी। शायद देश के किसी भी प्राईवेट स्कूल में आरटीई का कोई पहला बैच बना ही नहीं। इन सात सालों में देश के पास एक ऐसा छात्र नहीं है जो यह क्लेम करे कि वह शिक्षा के अधिकार कानून के तहत किसी नामचीन स्कूल में पढ़ाई कर रहा है।

शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में आती है, जिसके अनुसार केंद्र और राज्य के खर्च का अनुपात 60, 40 है। केंद्र ने कानून बनाया। उसका पालन कैसे कराना है इसके नियम राज्यों को बनाने हैं। राज्यों ने अपने-अपने हिसाब से नियम बनाए। यूपी में कुछ, राजस्थान में कुछ और मध्यप्रदेश में कुछ। लेकिन कोई भी राज्य इसे लागू नहीं कर पाया।

सवाल यह है कि आखिर क्यों इतना महत्वपूर्ण कानून देश में लागू नहीं हो पाया। क्या इसके ढांचे में खामियां हैं या इसे लागू कराने वालों की नीयत में खोट। इस कानून को बनाने के पीछे की मंशा जितनी अच्छी है उतना ही भयावह है इसे दम तोड़ते हुए देखना।



शिखा ‘भारद्वाज’

Friday 24 August 2012

दैनिक जागरण में प्रकाशित शिक्षा के अधिकार पर लेख


                    शिक्षा का अधिकार,
                संभावनाए और आशंकाए अपार

आजकल टी.वी पर एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है, जिसमें एक गरीब बच्ची डरते हुए बड़े नामचीन स्कूल में पढ़ने जाती है। इधर घर पर उसकी मॉ भी डरी हुई है कि उस स्कूल में पढ़ने वाले अमीर बच्चे उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे। जब वो बच्ची अपना टिफिन खोलती है तब सारे बच्चे उसे घेर लेते है और उसके टिफिन का आलू-गोभी बड़े चाव से खाते है। इस तरह वह बच्ची अपने सहपाठियों के बीच जगह बना लेती है। इस विज्ञापन की मुख्य बात यह है कि उसकी मॉ सब्ज़ी में एक मैजिक मसाले का इस्तेमाल करती है जिसके अरोमा (खुशबू) से सारे बच्चे उसकी ओर खिंचे चले आते है । इस तरह वो बच्ची नए स्कूल में एडजेस्ट कर लेती है। यहॉ इस विज्ञापन का जिक्र  इसलिए किया क्योकि शिक्षा के अधिकार कानून के तहत जो 25 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट और पब्लिक स्कूलो में दाखिला लेंगे उनकी और उनके अभिभावको की मनोदशा विज्ञापन वाली लड़की और उसकी मॉ की तरह ही होगी।
  शिक्षा का अधिकार कानून तो बन गया। अमल में लाने की कवायदे भी शुरू हो गई लेकिन किसी ने भी  वास्तविकता की परिकल्पना की है। कानून में उन 25 प्रतिशत बच्चों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव ना किया जाए, इसकी जिम्मेदारी प्रिंसिपल और शिक्षको को दी गई है। अब सोचने वाली बात यह है कि जो प्रिंसिपल इसके खिलाफ है क्या वह सहजता से इन बच्चो को अपने स्कूल में स्वीकार कर लेंगे? पिछले साल दिल्ली के पब्लिक स्कूलों ने दाखिले के खिलाफ स्कूल बंद कर दिए थे। देश भर के प्राईवेट स्कूल कोई ना कोई जुगाड़ कर रहे है शिक्षा के कानूनी अधिकार के तहत दाखिले करने से बचने का। क्या यह जुगाड़ू स्कूल खुले दिल से स्वागत करेंगे उन नन्हे नौनिहालों का, जिनकी आंखो में बड़े स्कूलों में पढ़ने का ख्वाब बस पूरा ही होने वाला है। जब यह 25 प्रतिशत बच्चे उन 75 प्रतिशत बच्चो के साथ पढ़ाई लिखाई करेगे तब अपने और उनके बीच की असमानता से अछूते रह पाएगे। मसलन उन बच्चो का रहन सहन स्वाभाविक है इन बच्चो से अलग होगा। उनकी भाषा,शैली,सोशल एटिकेट्स, चीज सामान और प्रेजेंटेशन सब कुछ भिन्न होगा। इसको देखने का एक और नजरिया यह भी है कि जब दोनो वर्ग एक दूसरे के साथ होंगे तो उनके बीच सामाजिक- सांस्कृतिक अदान प्रदान भी होगा। दोनो वर्ग एक दूसरे से सीखेगें भी। जरूर सीखेंगे। इसमे कोई शक नही लेकिन तब जब उनमें पहले से ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी जैसा कॉन्सेप्ट  बनने ना दिया जाए। अब सवाल यह उठता है कि यह प्रयास करेगा कौन? क्या इसके लिए कानून में अलग से प्रावधान है? क्या सरकार ने दिशा निर्देश जारी किए है? यह कानून बनाते समय सबसे ज्यादा विचार विमर्श इस ओर किया जाना चाहिए था। इसमें शिक्षको, अभिभावको के कर्तव्यों और कार्यो की सूची जारी करनी चाहिए थी। उसमे यह सुझाव होने चाहिए थे कि 25 और 75 का तालमेल कैसे करवाना है। कैसे दोनो वर्गों को बिना भेदभाव के एक दूसरे की परिस्थितयो, संभावनाओं और शैली से परिचित करवाना है। तमाम एन.जी.ओ. और बुद्धिजीवियों ने इस ओर सुझाव दिए जिसमें टीचर्स की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा होगी कि वह इस बात का ख्याल रखे कि क्लासरूम में अमीरी –गरीबी का भेद ना हो। हर बच्चे के साथ एक जैसा सलूख  किया जाए। बच्चो को निर्देश दिया जाए कि वह अपना जन्म दिन स्कूल में ना मनाए और मनाना ही है तो सादगी से मनाए। स्कूल में बच्चो के टिफिन पर ध्यान दिया जाए। अगर हो सके तो स्कूल प्रशासन स्वयं खाने का प्रबंध करे। भोपाल का एक स्कूल ऐसा ही करता है। कोई भी बच्चा दिखावटी और मंहगे सामान लेकर स्कूल ना आए।
यह सभी सुझाव एकपक्षीय है। सारे समझौते अमीर वर्ग के मातहत ही आ रहे है। यह भी एक समस्या है? 75 प्रतिशत बच्चो के अभिभावको का यह तर्क हो सकता है कि इन बच्चो की शिक्षा का जिम्मा सरकार ने उठाया है तो हम और हमारे बच्चे इसका खामीयाज़ा क्यो भुगते?  कुछ मुट्ठी भर बच्चो के लिए  पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करने का क्या मतलब?  अभिभावको को यह चिंता है कि कहीं गरीब बच्चो के साथ पढ़ने से उनके बच्चे बिगड़ ना जाएं। इन बच्चों की निशुल्क शिक्षा का आर्थिक बोझ स्कूल प्रशासन उन पर ना डाल दे। यह सारे सवाल जायज़ और लाजमी है। आर्थिक बोझ का वहन सरकार करेगी ऐसा सरकार ने आश्वासन दिया है लेकिन उपरोक्त अन्य प्रश्नो का जवाब  इस कानून के किसी भी क्लॉज में नही है।  
 अगर यह कानून वास्तविक स्थितियों को ध्यान में रखकर बनाया गया होता तो सबसे ज्यादा परिवर्तन की गुजारिश हमारी सोच से की जाती। अफसोस ,शायद ही किसी कानून में सोच को बदलने के लिए नियम बनाए जाते हो। मुद्दा फिर वहीं आखिर गरीब बच्चो की मनोदशा पर बुरा प्रभाव ना पड़े इसके लिए क्या प्रयास किए जाएं। देखने में तो बहुत छोटी सी बात है लेकिन सोचकर देखिए, है बहुत बड़ी। इसे हम और आप सिर्फ सोच सकते है। हमारे नौनिहाल तो इसे जिएगें। काश कि विज्ञापन वाले मसाले का मैजिक हर मॉ को मिल जाए और सारे बच्चे एकसाथ शिक्षा पाएं।   
                                                                                शिखा सिंह
                                                                              स्वतंत्र पत्रकार

Sunday 30 October 2011

परीक्षा का एक प्रश्न

एक परीक्षा देने गयी,पहला ही प्रश्न था २ जी स्पेक्ट्रुम. पढ़ते ही लगा अब लो इतने दिनों बाद इस पर क्या लिखू ,खैर सोचा इसको आखिर में करती हूँ .सारे प्रश्न हल करने के बाद २ जी स्पेक्ट्रुम - कुछ अलग लिखना चाह रही थी,सोचते सोचते कलम सरपट दौडाई जो दिमाग में आया वह आपके लिए दोबारा से लिख रहीं हूँ ,गौर करे  -  घपलो घोटालो और भ्रष्टाचार की फेहरिस्त में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला ( २ जी स्पेक्ट्रुम ) बड़ी हस्तियों, नेता ,उद्योगपति, मीडियाकर्मियों इन सबके सगे सम्बन्धियों  के साथ साथ एक बहुत बड़ी धनराशी २५० करोड़  का शामिल होना ही इस घोटाले को अब  तक का सबसे वृहत्तम घोटाला साबित  करता है. . घोटाले के मुख्य अभियुक्त  संचार मंत्री ए. राजा सलाखों के पीछे  सजा काट रहे है.अन्य अभियुक्त भी गाहे बगाहे पुलिस स्टेशन, कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं .
   यह घोटाला जितना बड़ा उसे करने की अवधि उतनी ही छोटी मात्र आधा घंटे . आधा घंटे और २५० करोड़ हज़म. संचार भवन की सातवी मंजिल में दोपहर के २ से २.३०के बीच गुपचुप ढिंढोरा पीटकर २जी स्पेक्ट्रुमका आवंटन कर दिया गया. इस पूरी प्रक्रिया में प्रयुक्त नीति पहले आओ पहले पाओ थी. टाटा,अम्बानी ,गोयनका, और भी बड़े बड़े नाम अपने आवंटन पाकर खुश. लेकिन , किसी न किसी को तो शोर मचाना ही था . आखिर मामला सूचना और संचार का था . मीडिया सामने लाया कैग की औडिट रिपोर्ट कुछ सुबूतो के साथ . मीडिया के दामन पर भी दाग लगा जब नामचीन मीडियाकर्मियों के नाम नीरा राडिया के साथ जुड़े .कुछ मीडिया समूहों ने इस घोटाले से जुड़े अपने लोगो को बर्खास्त किया और किसी ने छवि निर्माण (यू नो ईमेज बिल्डिंग ) का प्रयास किया. याद करिए फिल्म "नो वन किल्ड जेसिका ". इस खुलासे से किसी कीबरसो की  साख में बट्टा लगा (टाटा) और किसी की साख निर्माण का प्रयास किया गया( बरखा दत्ता) . तो २जी घोटाले का लब्बोलुआब यह है की २५० करोड़ के दाग फिल्मे बनाकर मिटाने की कोशिश की जाती है.अभी की खबर यह है की बाकि सारे अभियुक्त जेल में है और सजा से बचने के जुगाड़ जारी है .


Monday 29 August 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.


ऑटों से बाहर की दिल्ली 

 
बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....
 
 
                                 आकाशवाणी से संसद

Thursday 20 January 2011

बर्तन गंगा नहाने जाते है,..


नहाना हम सभी का रोज़ का काम है। लेकिन हम सब रोज़ नहाए ये जरूरी भी नहीं।सर्दियो में अक्सर लोग नही नहाते है। लेकिन ज्यादातर हम सभी दिन की शुरूआत नहाधोकर ही करते है। बोर मत होइए यह लेक्चर हमारे आपके नहाने पर नही है बल्कि यहां तो एक विशेष किस्म का नहाना है वो भी पतितपावनी गंगा में।यहां साधु संतो के स्नान की बात भी नही हो रही है जो माघ में गंगा नहाते है।यहां तो बर्तन नहा रहे है,जी हॉ बर्तन (युटेन्सिल)। क्या बकवास बात है एक पल को मुझे भी यही लगा लेकिन जब इस पूरे जुमले की संदर्भ सहित व्याख्या पता लगी तो यह सोचने पर मजबूर हो गई कि क्या वाकई बर्तन नहाते है? वो भी बाथरुम,सिंक या गुसलखाने मे नहीं गंगा मे डुबकी लगा लगा कर। इस लेख का शीर्षक भी यही है- बर्तन गंगा नहाने जाते है।प्रेजेन्ट इंडैफिनिट मे लिखा गया वाक्य और कहा गया दर्शन शास्त्र प्रवक्ता बालकृष्ण अग्निहोत्री के श्रीमुख से पत्नी मिथिलेष को। पढ़ते रहिए बर्तनों के नहाने का रहस्य बस खुलने ही वाला है।
 मिथिलेश आंटी हमारे पड़ोस मे रहती है। खूबसूरत दो बच्चों की मॉ,कुशल गृहणी और पेशे से अंग्रेजी की प्रवक्ता।लेकिन ४२ की उम्र मे एक बेटे को जन्म देने के बाद से ही हड्डियों की बीमारी हो गई जिसके चलते हाथो और पैरों की उंगलिया टेढ़ी हो गई। बावजूद इसके काम की चुस्ती फुर्ती मे कोई फर्क नही पड़ा। सर्दियों मे हालत कुछ खराब हो जाती थी।शरीर अकड़ जाता था,तब वो मेरे घर धूप सेकने आती थी। खूब बाते करती इधर उधर की,अंग्रेजी की,शेक्सपियर,मिल्टन की, न्यू मॉ़र्डन एज की और आखिर मे अपनी शादी की और आज भी गुलाबी हो जाती है।
 बालकृष्ण जी शाम को कॉलेज से आते चाय पीकर घर के बाहर ही कॉफी हाउस सा मजमा लगा देते। खूब तर्क करते मोहल्ले भर को समझाते बतियाते और ज्ञान बांटते बांटते रात के ११ बजा देतें। आंटी परेशान अग्निहोत्री जी खा ले तब वह बर्तन धोए।ऐसा नही है कि बाई नही हैं। बाई है लेकिन वह सुबह के बर्तन धोती है। करते कराते बालकृष्ण जी सा़ढ़े ग्यारह तक खाने की मेज पर आते। उसके बाद आंटी सारे बर्तन साफ करके सोती। सर्दियों की रातों में १२ बजे बर्तन धोकर सोना वाकई बड़ी बात है एक ऐसी औरत के लिए जिसकी हड्डिया ठंड में ऐठ जाती है।
 एक दिन सुबह आंटी अपने हाथों की मालिश कर रही थी। मैंने पूछ लिया जब बाई है तो आप क्यो परेशान होती है? कुछ सोचकर वह बोली शादी की पहली रात तुम्हारे अंकल ने मुझसे तीन बाते मानने के लिए कहीं। पहली-मेरे कामों मे कोई हस्तछेप मत करना। दूसरा- मेरे माता पिता की बात मानना और तीसरा रात में बर्तन जूठे मत छोड़ना।
तीसरे काम पर अचंभा हुआ कि यह कैसी अटपटी अपेछा मैने पूछा तब जवाब मिला कोई सवाल नही। फिर भी रहा ना गया मुझसे मैमे कई दफा पूछा तब झुंझलाकर बोले - बर्तन गंगा नहाने जाते है, पिता जी ने मॉ से यही कहा था और अब मैं तुमसे कह रहा हूं। मेरा दिमाग सन्न और मन सन्निपात में। यह क्या तर्क है बर्तन गंगा नहाने जाते है इसलिए इन्हे जूठा ना छोड़ा जाए। साफ करके ही रखों। लेकिन एक पल को लगा कि गंगा तो पतितपावनी है वह तो पापों को धो डालती है। 
 मेरा तो दिमाग झनझना गया कि इस कुतर्क के पीछे तर्क क्या दूं कि आखिर क्यों बर्तन आधी रात गंगा नहाने जाते है।पता लगे तो मुझे जरूर बताए।

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Friday 9 July 2010

मधुमय अतीत .......

बात मेरे बचपन की है .. बचपन में मैं काफी शर्मीला किस्म का लडका था, खास कर लड़कियों के मामले में........... कोई भी कुछ भी कह कर मुझें चिढा सकता था। मेरी इस शर्मीलेपन का फायदा मेरे घर वाले खूब उठाया करते थे खास तौर पर जब मेरे लिए नये कपडे़ आया करते थे .. तो पापा यह कह कर अक्सर चिढा लेते थे कि अब मेरी शादी करा दी जाए .... मेरे को यह बात काफी चिढा देती थी और मैं सारे नयें कपड़े को उतार कर फेक कर गुस्से से अपने आप को कमरे में बंद कर लिया कर लेता था..........
      बात एक बार की हैं हम भोगांव (मैनपुरी) में रहते थे। मै और मेरी दीदी को कापी खरीदनी थी।मैं 4 में पढता था और दीदी 5 में। मुझें हिन्दी और दीदी को अंग्रेजी की कापी खरीदनी थी हम दोनों दुकान पर पहुचे कापी की मांग की दुकानदार ने कापियां दी इत्तेफाक से मेरी कापी पर किसी फिल्म अदाकारा का चित्र था अब मेरा मन उस कापी से उचट गया और कापी लेने से इनकार कर दिया दीदी ने डांट कर उस कापी को ही लेने का दबाब डाला पर मैं अडिग ..उपर से.उस वक्त दीदी भी छोटी थी और थो़डा दुकानदार का डर ... लेकिन मैं अपने विचार पर अडिग ....हार कर दीदी ने उस दुकानदार से कहा कि इसे बदल कर दूसरी कापी दे दें.... उस पर वो दुकानदार डाटते हुये लफ्जो में बोला मौडी (लड़की) अभी तो तूने यही कापी मागी थी ना .....दीदी ने कापते हुये स्वर में कहा कि इस पर हिरोईन छपी है इस लिए मैं इसे नहीं ले रहा हूँ....दुकानदार ने हसते  हुये अपने सहायक से कहा कि कापी बदल कर दूसरी दे दे इस मौड़े (लड़का) को मौड़ी (लड़की ) पंसद नही है।
    आज भी हम इस बात को याद  कर अपने बचपन के दिन को याद कर उन बचपन के दिनों में लौट जाते हैं।  सच में कितना अच्छा है मधुमय अतीत .......

Wednesday 28 April 2010

सब अपनई हयेन

मैंने अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।