Friday 24 August 2012

दैनिक जागरण में प्रकाशित शिक्षा के अधिकार पर लेख


                    शिक्षा का अधिकार,
                संभावनाए और आशंकाए अपार

आजकल टी.वी पर एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है, जिसमें एक गरीब बच्ची डरते हुए बड़े नामचीन स्कूल में पढ़ने जाती है। इधर घर पर उसकी मॉ भी डरी हुई है कि उस स्कूल में पढ़ने वाले अमीर बच्चे उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे। जब वो बच्ची अपना टिफिन खोलती है तब सारे बच्चे उसे घेर लेते है और उसके टिफिन का आलू-गोभी बड़े चाव से खाते है। इस तरह वह बच्ची अपने सहपाठियों के बीच जगह बना लेती है। इस विज्ञापन की मुख्य बात यह है कि उसकी मॉ सब्ज़ी में एक मैजिक मसाले का इस्तेमाल करती है जिसके अरोमा (खुशबू) से सारे बच्चे उसकी ओर खिंचे चले आते है । इस तरह वो बच्ची नए स्कूल में एडजेस्ट कर लेती है। यहॉ इस विज्ञापन का जिक्र  इसलिए किया क्योकि शिक्षा के अधिकार कानून के तहत जो 25 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट और पब्लिक स्कूलो में दाखिला लेंगे उनकी और उनके अभिभावको की मनोदशा विज्ञापन वाली लड़की और उसकी मॉ की तरह ही होगी।
  शिक्षा का अधिकार कानून तो बन गया। अमल में लाने की कवायदे भी शुरू हो गई लेकिन किसी ने भी  वास्तविकता की परिकल्पना की है। कानून में उन 25 प्रतिशत बच्चों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव ना किया जाए, इसकी जिम्मेदारी प्रिंसिपल और शिक्षको को दी गई है। अब सोचने वाली बात यह है कि जो प्रिंसिपल इसके खिलाफ है क्या वह सहजता से इन बच्चो को अपने स्कूल में स्वीकार कर लेंगे? पिछले साल दिल्ली के पब्लिक स्कूलों ने दाखिले के खिलाफ स्कूल बंद कर दिए थे। देश भर के प्राईवेट स्कूल कोई ना कोई जुगाड़ कर रहे है शिक्षा के कानूनी अधिकार के तहत दाखिले करने से बचने का। क्या यह जुगाड़ू स्कूल खुले दिल से स्वागत करेंगे उन नन्हे नौनिहालों का, जिनकी आंखो में बड़े स्कूलों में पढ़ने का ख्वाब बस पूरा ही होने वाला है। जब यह 25 प्रतिशत बच्चे उन 75 प्रतिशत बच्चो के साथ पढ़ाई लिखाई करेगे तब अपने और उनके बीच की असमानता से अछूते रह पाएगे। मसलन उन बच्चो का रहन सहन स्वाभाविक है इन बच्चो से अलग होगा। उनकी भाषा,शैली,सोशल एटिकेट्स, चीज सामान और प्रेजेंटेशन सब कुछ भिन्न होगा। इसको देखने का एक और नजरिया यह भी है कि जब दोनो वर्ग एक दूसरे के साथ होंगे तो उनके बीच सामाजिक- सांस्कृतिक अदान प्रदान भी होगा। दोनो वर्ग एक दूसरे से सीखेगें भी। जरूर सीखेंगे। इसमे कोई शक नही लेकिन तब जब उनमें पहले से ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी जैसा कॉन्सेप्ट  बनने ना दिया जाए। अब सवाल यह उठता है कि यह प्रयास करेगा कौन? क्या इसके लिए कानून में अलग से प्रावधान है? क्या सरकार ने दिशा निर्देश जारी किए है? यह कानून बनाते समय सबसे ज्यादा विचार विमर्श इस ओर किया जाना चाहिए था। इसमें शिक्षको, अभिभावको के कर्तव्यों और कार्यो की सूची जारी करनी चाहिए थी। उसमे यह सुझाव होने चाहिए थे कि 25 और 75 का तालमेल कैसे करवाना है। कैसे दोनो वर्गों को बिना भेदभाव के एक दूसरे की परिस्थितयो, संभावनाओं और शैली से परिचित करवाना है। तमाम एन.जी.ओ. और बुद्धिजीवियों ने इस ओर सुझाव दिए जिसमें टीचर्स की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा होगी कि वह इस बात का ख्याल रखे कि क्लासरूम में अमीरी –गरीबी का भेद ना हो। हर बच्चे के साथ एक जैसा सलूख  किया जाए। बच्चो को निर्देश दिया जाए कि वह अपना जन्म दिन स्कूल में ना मनाए और मनाना ही है तो सादगी से मनाए। स्कूल में बच्चो के टिफिन पर ध्यान दिया जाए। अगर हो सके तो स्कूल प्रशासन स्वयं खाने का प्रबंध करे। भोपाल का एक स्कूल ऐसा ही करता है। कोई भी बच्चा दिखावटी और मंहगे सामान लेकर स्कूल ना आए।
यह सभी सुझाव एकपक्षीय है। सारे समझौते अमीर वर्ग के मातहत ही आ रहे है। यह भी एक समस्या है? 75 प्रतिशत बच्चो के अभिभावको का यह तर्क हो सकता है कि इन बच्चो की शिक्षा का जिम्मा सरकार ने उठाया है तो हम और हमारे बच्चे इसका खामीयाज़ा क्यो भुगते?  कुछ मुट्ठी भर बच्चो के लिए  पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करने का क्या मतलब?  अभिभावको को यह चिंता है कि कहीं गरीब बच्चो के साथ पढ़ने से उनके बच्चे बिगड़ ना जाएं। इन बच्चों की निशुल्क शिक्षा का आर्थिक बोझ स्कूल प्रशासन उन पर ना डाल दे। यह सारे सवाल जायज़ और लाजमी है। आर्थिक बोझ का वहन सरकार करेगी ऐसा सरकार ने आश्वासन दिया है लेकिन उपरोक्त अन्य प्रश्नो का जवाब  इस कानून के किसी भी क्लॉज में नही है।  
 अगर यह कानून वास्तविक स्थितियों को ध्यान में रखकर बनाया गया होता तो सबसे ज्यादा परिवर्तन की गुजारिश हमारी सोच से की जाती। अफसोस ,शायद ही किसी कानून में सोच को बदलने के लिए नियम बनाए जाते हो। मुद्दा फिर वहीं आखिर गरीब बच्चो की मनोदशा पर बुरा प्रभाव ना पड़े इसके लिए क्या प्रयास किए जाएं। देखने में तो बहुत छोटी सी बात है लेकिन सोचकर देखिए, है बहुत बड़ी। इसे हम और आप सिर्फ सोच सकते है। हमारे नौनिहाल तो इसे जिएगें। काश कि विज्ञापन वाले मसाले का मैजिक हर मॉ को मिल जाए और सारे बच्चे एकसाथ शिक्षा पाएं।   
                                                                                शिखा सिंह
                                                                              स्वतंत्र पत्रकार