Monday 4 April 2016

एक कानून का दम तोड़ना




आरटीई, राइट टू एजुकेशन। सात साल पुराना यह कानून साल-दर-साल दम तोड़ रहा है। अप्रैल-मई में अभिभावक संघ स्कूलों के खिलाफ आंदोलन करते हैं और गर्मियों की छुट्टियां आते-आते आरटीई को लागू करने के लिए चल रहे आंदोलन की भी छुट्टी हो जाती है। अब तो ऐसा लगता है जैसे आरटीई कानून नहीं त्योहार है, जिसे विशेष सीजन में याद किया जाता है। थोड़ी हाय-तौबा होती है और बाद में सब सामान्य।

इस साल भी स्कूलों में नया सत्र शुरू हुआ। तमाम मदों में फीस बढ़ाई गई और पेरेंट्स का गुस्सा फूट पड़ा। अभिभावक संघ ने जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपा कि आरटीई कानूनों का स्कूल पालन नहीं कर रहे और निकल पड़े स्कूलों के खिलाफ। मीडिया का भी साथ मिला। अखबारों में खबरें छपीं। स्कूल यूं बढ़ा रहे फीस। यह गैरकानूनी है। किताबों के नाम पर कमीशनखोरी का खेल, कहां का कायदा है और ब्ला ब्ला...। अप्रैल भर आरटीई, आरटीई ही सुनाई देगा। इसके बाद साल भर सब कहां चले जाते हैं, पता नहीं। उसी सिस्टम को स्वीकार कर लेते हैं, जिसके खिलाफ एक महीने आंदोलन किया और मन में यह जानते भी हैं कि अगले साल फिर यही करना है। तो क्यों, आखिर क्यों। किस देश में जी रहे हैं हम। कैसा लोकतंत्र और कैसा कानून? जिसका सात सालों से पालन तक नहीं कराया जा सका।

मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के कार्यकाल में एमएचआरडी ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम का जो प्रारूप संसद में रखा उसमें तमाम संशोधनों के बाद उसे कानूनी जामा पहनाया गया। छह से पंद्रह साल के बच्चों को निशुल्क शिक्षा का अधिकार मिले। इस अधिनियम के अनुसार सभी प्राईवेट स्कूलों को पहली से आठवीं कक्षा में 25 फीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करनी थी। जब इसमें खामी पाई गई और स्कूलों ने शंका जाहिर की हम किस आधार पर बड़ी कक्षाओं में बच्चों का प्रवेश लेंगे तब इसे संशोधित किया गया कि प्राईवेट स्कूलों को, कानून लागू होने पर सिर्फ पहली कक्षा में ही 25 फीसदी सीटें आरक्षित करनी हैं। एक बैच बनने के बाद यह नियम आगे की कक्षाओं पर साल-दर-साल लागू होगा और आने वाले सालों में प्राईवेट स्कूलों की पहली से आठवी कक्षा में 25 फीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए आरक्षित हो जाएंगी। शायद देश के किसी भी प्राईवेट स्कूल में आरटीई का कोई पहला बैच बना ही नहीं। इन सात सालों में देश के पास एक ऐसा छात्र नहीं है जो यह क्लेम करे कि वह शिक्षा के अधिकार कानून के तहत किसी नामचीन स्कूल में पढ़ाई कर रहा है।

शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में आती है, जिसके अनुसार केंद्र और राज्य के खर्च का अनुपात 60, 40 है। केंद्र ने कानून बनाया। उसका पालन कैसे कराना है इसके नियम राज्यों को बनाने हैं। राज्यों ने अपने-अपने हिसाब से नियम बनाए। यूपी में कुछ, राजस्थान में कुछ और मध्यप्रदेश में कुछ। लेकिन कोई भी राज्य इसे लागू नहीं कर पाया।

सवाल यह है कि आखिर क्यों इतना महत्वपूर्ण कानून देश में लागू नहीं हो पाया। क्या इसके ढांचे में खामियां हैं या इसे लागू कराने वालों की नीयत में खोट। इस कानून को बनाने के पीछे की मंशा जितनी अच्छी है उतना ही भयावह है इसे दम तोड़ते हुए देखना।



शिखा ‘भारद्वाज’