Friday 9 July 2010

मधुमय अतीत .......

बात मेरे बचपन की है .. बचपन में मैं काफी शर्मीला किस्म का लडका था, खास कर लड़कियों के मामले में........... कोई भी कुछ भी कह कर मुझें चिढा सकता था। मेरी इस शर्मीलेपन का फायदा मेरे घर वाले खूब उठाया करते थे खास तौर पर जब मेरे लिए नये कपडे़ आया करते थे .. तो पापा यह कह कर अक्सर चिढा लेते थे कि अब मेरी शादी करा दी जाए .... मेरे को यह बात काफी चिढा देती थी और मैं सारे नयें कपड़े को उतार कर फेक कर गुस्से से अपने आप को कमरे में बंद कर लिया कर लेता था..........
      बात एक बार की हैं हम भोगांव (मैनपुरी) में रहते थे। मै और मेरी दीदी को कापी खरीदनी थी।मैं 4 में पढता था और दीदी 5 में। मुझें हिन्दी और दीदी को अंग्रेजी की कापी खरीदनी थी हम दोनों दुकान पर पहुचे कापी की मांग की दुकानदार ने कापियां दी इत्तेफाक से मेरी कापी पर किसी फिल्म अदाकारा का चित्र था अब मेरा मन उस कापी से उचट गया और कापी लेने से इनकार कर दिया दीदी ने डांट कर उस कापी को ही लेने का दबाब डाला पर मैं अडिग ..उपर से.उस वक्त दीदी भी छोटी थी और थो़डा दुकानदार का डर ... लेकिन मैं अपने विचार पर अडिग ....हार कर दीदी ने उस दुकानदार से कहा कि इसे बदल कर दूसरी कापी दे दें.... उस पर वो दुकानदार डाटते हुये लफ्जो में बोला मौडी (लड़की) अभी तो तूने यही कापी मागी थी ना .....दीदी ने कापते हुये स्वर में कहा कि इस पर हिरोईन छपी है इस लिए मैं इसे नहीं ले रहा हूँ....दुकानदार ने हसते  हुये अपने सहायक से कहा कि कापी बदल कर दूसरी दे दे इस मौड़े (लड़का) को मौड़ी (लड़की ) पंसद नही है।
    आज भी हम इस बात को याद  कर अपने बचपन के दिन को याद कर उन बचपन के दिनों में लौट जाते हैं।  सच में कितना अच्छा है मधुमय अतीत .......

Wednesday 28 April 2010

सब अपनई हयेन

मैंने अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।

Saturday 20 March 2010

उच्चारण ...............

शिखा सिंह

 

 

 

अपनी भावनाओं ,विचारों और सूचना बताने के लिए हम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। और भाषा गठन शब्दों से होता है। शब्द हमारी अभिव्यक्ति की इकाई होते हैं। हम शब्दों से ही वाक्य विन्यास होता है। वाक्य सूचना, विचार और भावनाओं को सम्प्रेषित करते हैं। यहां हम बोलकर और लिखकर सूचना सम्प्रेषण की बात कर रहे हैं। जब हम बोलकर अपने संदेश को प्रेषित करते हैं, तब शब्दों का वजन बढ जाता है। हमारा संदेश किसी को कितना प्रभावित करता है। प्रभावपूर्ण संदेश संप्रेषण हमारे उच्चारण पर निर्भर करता है। उच्चारण की एक गलती पूरी बात को बदल देती है।

 

हम सभी का उच्चारण या प्रननसियेशन हमारी पृष्ठभूमि निर्धारित करता है। हम किस समाज या किस प्रदेश से आ रहे हैं जैसे ऐसा माना जाता है उत्तर भारतीय लोगों की हिन्दी काफी अच्छी होती है। वहीं पश्चिम बंगाल के लोगों का हिन्दी में बंग्ला का पुट लिए होती है। यहां मेरी चर्चा का विषय हिन्दी भाषा नहीं है बल्कि उच्चारण है। यहां मैं उच्चारण को लेकर अपनी बात आप सबके सामने रखना चाहती हूं।

 

अक्सर ये देखने को मिलता है कि एक ही शब्द को लोग अलग- अलग तरह से उच्चारण बोलते हैं। अंग्रेजी भाषा में तो सबसे ज्यादा दिक्कत आती ेहै। विटामिन को वाइटामिन, एटिट्यूड , प्रोनाउनसिएशन ऐसे ढेरे शब्द है जिनको लेकर सही उच्चारण को लेकर क्या है। कोई नहीं जानता । उच्चापण की इसी समस्या के समाधान के लिए 2000 में इन्टरनेशनल फोनेटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य यह है कि ईन्टरनेशनल भाषा का उच्चारण पूरे विश्व में एक जैसा हो। भारत, ब्रिटेन, इंग्लैंड ऑस्ट्रेलिया फ्रान्स हर जगह अंग्रेजी बोली जाती है। हर देश के लोग अपनी सुविधानुसार उच्चारण करते है। इसकी कई खामियाँ सामने आती है। शब्द का वास्तविक उच्चारण खो जाता है और सुविधा वाला उच्चारण हावी हो जाता है। पूरे विश्व में एक समान अंग्रेजी बोले जाने के लिए यह ऑर्गनाईजेशन फोनेटिक डिक्शनरी बना चुकी है। जिसमें शब्दों के अर्थ के साथ-साथ अलग अलग चिन्ह बनाए गए है ये चिन्ह उच्चारण के संकेत हैं।

 

^...अ  cup  /k^p/

Double     /D^bal/

Monk       /m^nk/

^...ae

Cat        /kaet/

Stamp     /staemp/

Dad       /daed/

ये कुछ संकेत हैं जिनके माध्यम से एक समान उच्चारण किए जाने का प्रयास किया जा रहा है। और अब पूरी दुनिया इस उच्चारण पर अमल कर रही है। कुछ शब्द एक समान ध्वनि के साथ बोले जाते हैं जिन्हें डिपथांग्स कहते हैं। इसका विवरण भी दिया गया है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और कम्युनिकेशन के छात्रों से शुद्ध उच्चारण की आशा की जाती है।

हिन्दी भाषा में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो सही उच्चारण की पैरवी करे। इसीलिए इसमें स,श,ष,र,ड,को लेकर गलतियां बड़े पैमाने पर मतभेद बना हुआ है। और स्वान्त़: सुखाय उच्चारण अधिकतर लोग करते हैं।

Wednesday 10 March 2010

बदलते मौसम बदलते मंज़र
जो तुमने देखे,जो हमने देखे
बदलते तेवर ज़माने लाये
जो हमने तुमने थे साथ देखे

न हम कभी भी हुए तुम्हारे
न तुम भी थे हुए हमारे
बंधी थे तुमसे जिसके सहारे
थी मेरी सरहद मेरे किनारे

यहीं कहीं पे वो एक तुम थे,
यहीं कहीं पे वो एक हम थे
बता रहीं है बची ये सरहद
सुना रहे है बचे किनारे

न अब हो तुम ना तुम्हारी
बातें न अब हूँ में ना पुरानी यादें
बची हैं सरहद बचे किनारे
दिखा रहे है निशाँ हमारे

शिखा सिंह